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Friday, April 25, 2025

"महुआ, पिठौर और रुटी से लेकर लाल चींटी की चटनी तक — झारखंड के आदिवासी खानपान की दुनिया स्वाद से भी आगे है"

"झारखंड के जंगलों से थाली तक: स्वाद और सेहत से भरपूर आदिवासी व्यंजन!"

जब बात होती है झारखंड के आदिवासी समाज की, तो अक्सर लोगों की नजर उनकी संस्कृति, पहनावे या त्योहारों पर जाती है। लेकिन एक और पहलू है, जो न केवल अनोखा है बल्कि सेहत से भी भरपूर है — यह है आदिवासी समाज का पारंपरिक भोजन, जो जंगल की गोद में पला-बढ़ा है और हर निवाले में प्रकृति की सादगी और पोषण छिपा हुआ है।


क्या खास है आदिवासी खाने में?

झारखंड के आदिवासी समुदाय का खाना न तो ज्यादा तला-भुना होता है, न ही उसमें मसालों की भरमार। उनका खाना सीधा, सादा और पौष्टिक होता है, जो शरीर के साथ-साथ मन को भी ताजगी देता है। ये व्यंजन जंगलों से मिले प्राकृतिक उपहारों जैसे महुआ, सनई के पत्ते, कंद-मूल, लाल चींटी, बांस की कोपल, पिठौर, रुटी और कई जड़ी-बूटियों से बनते हैं।


1. लाल चींटी की चटनी (चापड़ा): झारखंड की सुपरफूड



आदिवासी इलाकों में सबसे प्रसिद्ध व्यंजन है — ‘चापड़ा चटनी’, जिसे लाल चींटियों और उनके अंडों से बनाया जाता है। इसमें नमक, लहसुन, मिर्च और लाल चींटियों को पीसकर बनाया जाता है। इसका स्वाद तीखा होता है और ये प्रोटीन और औषधीय गुणों से भरपूर होती है। इसे खाने से सर्दी-जुकाम, बदन दर्द और पेट की बीमारियां दूर होती हैं।


2. महुआ: स्वाद, शराब और स्वास्थ्य का पेड़



महुआ सिर्फ नशे की चीज नहीं, बल्कि आदिवासियों के लिए खाद्य और सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है। महुआ के फूलों से सूखी सब्जी, खीर और पेय पदार्थ बनाए जाते हैं। इसके बीजों से तेल निकाला जाता है और सूखे फूलों से हलवा तक बनाया जाता है।


3. रुटी और पिठौर: पारंपरिक अनाज का स्वाद

रुटी (मक्के/कोदो/मडुआ की रोटी) और पिठौर (अनाज का पेस्ट बनाकर पत्तों में लपेटकर पकाई गई डिश) आदिवासी थाली का जरूरी हिस्सा हैं। ये ग्लूटेन फ्री होते हैं और डायबिटीज व पाचन के लिए फायदेमंद माने जाते हैं।


4. बांस की कोपल (करील): जंगल का टेस्टी तोहफा

बांस के कोमल हिस्सों को काटकर पकाया जाता है, जिसे ‘करील की सब्जी’ कहा जाता है। यह सब्जी हल्की तीखी होती है और स्वाद में लाजवाब होती है। बांस की कोपलें फाइबर, मिनरल और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होती हैं।


5. झारखंडी जूस: पत्ता पीने से तंदुरुस्ती

यहां के आदिवासी आम पत्तियों, नींबू, तुलसी और बेल के पत्तों से खास किस्म के जूस बनाते हैं, जिन्हें सुबह-सुबह पीना शुद्धिकरण और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदद करता है।


लोकप्रियता बढ़ी, परंपरा बची

अब धीरे-धीरे झारखंड के ये व्यंजन राजधानी रांची से लेकर दिल्ली और मुंबई तक के होटलों में भी दिखने लगे हैं। कई युवा शेफ आदिवासी व्यंजनों को मॉडर्न ट्विस्ट के साथ पेश कर रहे हैं। लेकिन गांवों में आज भी इन्हें परंपरागत तरीके से, लकड़ी के चूल्हे पर और मिट्टी के बर्तनों में पकाया जाता है।


झारखंड के आदिवासी व्यंजन सिर्फ पेट नहीं भरते, कहानी भी सुनाते हैं — जंगलों की, संघर्षों की, और प्रकृति से प्रेम की। यह भोजन नहीं, संस्कृति की थाली है, जो स्वाद से ज्यादा आत्मा को तृप्त करती है।



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